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नई दिल्ली। बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को एनडीए के लिए राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया है, द्रौपदी मुर्मू फिलहाल झारखंड की राज्यपाल हैं. वे झारखंड की पहली ऐसी राज्यपाल भी हैं जो झारखंड बनने के बाद अपना टर्म पूरा किया है. झारखंड की नौंवी राज्यपाल रहीं 64 साल की द्रौपदी मुर्मु ओडिशा के मयूरभंज की रहने वाली हैं. वे ओडिशा के ही रायरंगपुर से विधायक रह चुकी हैं. वह पहली ओडिया नेता हैं जिन्हें राज्यपाल बनाया गया. इससे पहले बीजेपी-बीजेडी गठबंधन सरकार में साल 2002 से 2004 तक वह मंत्री भी रहीं. मुर्मू झारखंड की पहली आदिवासी महिला राज्यपाल भी रही हैं.
इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि भाजपा किसी आदिवासी या महिला चेहरे को सामने ला सकती है, हालांकि हमेशा की तरह भाजपा चेहरे को लेकर अनप्रिडिक्टेबल रही है, मुर्मू के साथ दोनों फैक्टर हैं वह महिला भी आदिवासी भी.
मुर्मू के रेस में आगे निकलने की सबसे प्रमुख वजह इस साल होने वाले राष्ट्रपति चुनावों की गणित भी है. इसे ऐसे समझिए, इस साल यानी 2022 में होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव 16वें चुनाव होंगे. इस साल के चुनाव में इलेक्टोरल कॉलेज यानी निर्वाचन मंडल में 4809 सदस्य होंगे. इनमें राज्य सभा के 233, लोकसभा के 543 और विधानसभाओं के 4033 सदस्य होंगे. वोटिंग के दौरान हर संसद सदस्य और विधानसभा सदस्य की वोट की वैल्यू होती है. इस बार हर संसद सदस्य के हर वोट की क़ीमत 700 तय की गई है. हर राज्य के विधानसभा सदस्यों के वोटों की कीमत उस राज्य की जनसंख्या पर तय होती है. जैसे उत्तर प्रदेश में हर विधानसभा सदस्य के वोट का वेटेज 208 होगा, जबकि मिजोरम में आठ और तमिलनाडु में 176, विधानसभा सदस्यों के वोटों का कुल वेटेज 5,43,231 होगा.
संसद के कुल सदस्यों के वोटों का वेटेज 543,200 है यानी इलेक्टोरल कॉलेज में शामिल सभी सदस्यों के वोटों का वेटेज 10,86,431 है. माना जाता है कि 10.86 लाख के वेटेज वाले इलेक्टोरल कॉलेज में भाजपा और साथी दलों के पास 50 प्रतिशत से कम वोट हैं और अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए उन्हें वायएसआर कांग्रेस और बीजेडी जैसे दलों की ज़रूरत पड़ेगी. बीजेडी यानी ओडिशा की बीजू जनता दल जिसकी राज्य में सरकार है और नवीन पटनायक मुख्यमंत्री हैं. बीजेपी ने अपनी इसी गणित को दुरुस्त करने के लिए के लिए ओडिशा से चेहरा चुना, ऐसे में नवीन पटनायक के पीछे हटने की संभावना बन ही नहीं सकती और यही वजह है कि द्रौपदी मुर्मू इस रेस में आगे निकल गईं.
अगर इसमें राजनितिक समीरकरण की तलाश की जाए तो गुजरात के चुनावों के बाद एमपी के चुनाव हैं, मध्यप्रदेश आदिवासी वोटरों के लिहाज से भारत का सबसे बड़ा राज्य है, 2011 सेंसेस के मुताबिक एमपी आदिवासी आबादी का 21.5 प्रतिशत है, मध्यप्रदेश में 2018 के चुनावों में बीजेपी को 47 एसटी के लिए रिजर्व सीटों में से 16 पर ही जीत मिली थी जबकि 2013 के चुनावों में यह आंकड़ा 31 था, मध्यप्रदेश की 29 लोकसभा सीटों में से 6 सीटें एसटी केस के लिए रिजर्व है. 2014 में भाजपा ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज कर ली थी, हालांकि बाद में हुए उपचुनाव में एक सीट पर कांग्रेस ने बाजी मार ली थी, 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने मध्यप्रदेश की सभी एसटी सीटों पर जीत दर्ज कर ली थी.
सीएसडीएस का सर्वे कहता है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 30 प्रतिशत एसटी वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 40 प्रतिशत लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में समीकरण बदल गया, एमपी में बीजेपी को 2019 के लोकसभा चुनाव में 54 प्रतिशत एसटी वोट मिले. वहीं कांग्रेस को सिर्फ 38 प्रतिशत, एसटी के लिहाज से झारखंड भी एक प्रमुख राज्य है, 2019 के लोकसभा चुनाव में, झारखंड में 65 प्रतिशत एसटी वोट बीजेपी+ को मिले थे. 2019 लोकसभा के लिहाज से राजस्थान में बीजेपी को 55 प्रतिशत एसटी वोट मिला. वहीं 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 40 प्रतिशत और कांग्रेस को 41 प्रतिशत एसटी वोट मिले थे. बीजेपी दूर की सोचने और देखने वाली पार्टी है, देश भर में भाजपा ने एसटी कम्युनिटी का विश्वास जीता है और वह इसे बनाए रखना चाहती है क्योंकि 2023 में जिन तीन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें एसटी की भूमिका अहम है.