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उत्तर प्रदेश के बांदा में मां काली का एक ऐसा मंदिर है जहां मां को जल चढ़ाया जाता है. इसके अलावा पूरे देश में कहीं भी देवी मां के ऊपर जल नहीं चढ़ाया जाता है. मंदिर के पुजारी मुन्ना नंद सरस्वती ने बताया कि लगभग ढाई सौ साल पहले माली समाज के लोग घोड़ों पर लादकर अपने माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ढोने का काम करते थे. उन्हीं में से एक थे लाले बाबा, जिन्हे एक दिन रात में स्वप्नन आया कि किसी गांव में मां काली की मूर्ति मिट्टी में दबी है. सुबह लाले बाबा स्वप्नन वाले स्थान पर पहुंचे और मूर्ति निकाल ली.
लाले बाबा ने मूर्ति को घोड़े पर लाद दिया और निकल गए. सफर के दौरान रात हो गई तो लाले बाबा बांदा जनपद के अलीगंज में रुक गए. इस दौरान उनके साथ मौजूद एक व्यापारी ने कहा कि मूर्ति घोड़े पर लदी है. इसे नीचे रख दो. उसकी बात सुनकर लाले बाबा ने उस मूर्ति को अलीगंज के बाबूलाल चौराहा के पास जहां रुके वहीं जमीन पर रख दिया. मूर्ति रखने के बाद जब सुबह उन्होंने जमीन से मूर्ति को उठाकर वापस घोड़े पर रखना चाहा तो मूर्ति वहां से हिली तक नहीं.
जिसके बाद यहीं पर एक चबूतरा बनाकर लाले बाबा ने उस मूर्ति की पूजा पाठ शुरू कर दी. इस मूर्ति में मां भवानी सिंह पर सवार हैं. यहां के सुप्रसिद्ध स्वर्णकार गोंडी लाल सराफ के बेटे मोतीलाल को काली मां ने सपना देकर अपनी दुकान के साइड वाली पुराणी दुकान के तलहटी में बेशुमार दौलत होने कि बात का बताई थी. जिसके बाद जब मोतीलाल ने साइड की दुकान खरीदकर खुदाई कराई, तो जमीन में नीचे से काफी धन मिला. फिर मोती भाई ने बनारस और जयपुर से कारीगर बुलाकर माँ काली का भव्य मंदिर तैयार कराया.
आज भी इस मंदिर में एक ही पुजारी का परिवार पूजा कर रहा है. ये उनकी 8वीं पीढी है. इस मंदिर में मां कि मूर्ती में पर भक्त जल चढाते हैं. जबकी बाहर ऐसा नहीं हैं, जो भी भक्त यहां सच्चे मन से मां काली की पूजा करता है उसकी सारी मुराद पूरी होती हैं.
वर्तमान पुजारी महंत मुन्ना आनंद सरस्वती ने बताया कि मां काली के मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यहां विराजमान मां की मूर्ति है. सिंह पर सवार मां काली की मूर्ति देश में बहुत ही कम स्थानों पर है. यहां पर भी मां की दिव्य मूर्ति सिंह पर सवार है. इसके साथ ही मंदिर के अन्य देवी देवताओं की मूर्ति है.
महंत बताते हैं कि यहां की जो खप्पर आरती होती है वह बहुत ही विशेष होती है. उसमें बहुत भीड़ होती है और यहां तक कि राष्ट्रीय राजमार्ग को रोक दिया जाता है. उसका डायवर्जन कर दिया जाता है क्योंकि भीड़ इतनी होती है जो मंदिर के अंदर नहीं समा पाती है. तो वह बाहर ही खड़े होकर मुख पर आरती का आनंद लेते हैं और एक महाआरती भी होती है शाम 8 बजे वह प्रतिदिन होती है और इन 9 दिनों में काफी भीड़ होती है.