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लखनऊ। मंगलवार को देश के कई राज्यों में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के ठिकानों पर छापेमारी हुई. असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र और दिल्ली समेत कुछ राज्यों में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के कार्यकर्ताओं के घर पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी और स्थानीय पुलिस ने छापा मारा. इस छापेमारी के दौरान पीएफआई के करीब ढाई सौ कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया है. ये संख्या और बढ़ सकती है. एक हफ्ते में पीएफआई को खिलाफ देशभर में ये दूसरी बड़ी छापेमारी है. इसे इस विवादित संगठन पर प्रतिबंध लगाने की भूमिका तैयार करने की दिशा में उठाए गए कदम के तौर पर देखा जा रहा है.
ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ दिनों से केंद्र सरकार पर पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने का दबाव बढ़ रहा है. खासकर बीजेपी शासित राज्यों की तरफ से इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग जोर शोर से उठ रही है. इसी को मद्देनजर गत 22 सितंबर को एनआईए ने देशभर में पीएफआई के दफ्तरों पर छापेमारी के बाद इसके सौ से ज्यादा कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया था. इनसे पूछताछ के दिल्ली से 30 पीएफआई के नेताओं को गिरफ्तार किया गया है. दावा किया जा रहा है कि गिरफ्तार आरोपियों से एजेंसियों को काफी अहम जानकारी मिली है. उन जानकारियों को राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों के साथ साझा किया गया ताकि पीएफआई के नेताओं और आतंकियों पर एक साथ कार्रवाई की जा सके. मंगलवार को सुरक्षा एजेंसियों ने देश के 9 राज्यों में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के ठिकानों पर छापेमारी कर करीब ढाई सौ कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया है.
जल्द ही लग सकता है संगठन पर बैन
केंद्र सरकार के सूत्रों से जानकारी मिल रही है कि पीएफआई पर बैन लगाने की पूरी तैयारी है. इसी हफ्ते पीएफआई पर प्रतिबंध लग सकता है. सुरक्षा एजेसिंयों की सलाह पर केंद्र सरकार प्रतिबंध लगा सकती है. दरअसल, एजेंसियों की छापेमारी की ये कार्रवाई प्रतिबंध लगाने से पहले की कार्रवाई के तौर पर देखा जा रहा है. पिछले कुछ साल से लगातार पीएफआई के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर आतंकी घटनाओं में शामिल और विदेशों से आतंकी फंडिंग के आरोप लग रहे थे. एजेंसियां इसके पुख्ता सबूत भी मिलने का दावा कर रही है. पीएफआई से जुड़े काफी सारे नेताओं को यूएपीए और मनी लॉन्ड्रिंग जैसे सख्त कानूनों के तहत गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन संगठन पर लगाम लगाना काफी मुश्किल हो रहा था और यही वजह है कि इस बार खुफिया एजेंसियों ने केंद्रीय और राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिलकर एक साथ पीएफआई के नेताओं पर कार्रवाई की.
क्या बला है पीएफआई?
पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है. इसके आधिकारिक एजेंडे के मुताबिक ये संगठन हाशिए पर पहुंच गए दलित, पिछड़े और मुस्लिम समाज में सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक चेतना के लिए काम करता है. पीएफआई खुद को ऐसा संगठन बताता है जो सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ताकत और बेहतरी के लिए काम करता है. मुख्य तौर पर वह दबे कुचले लोगों और वंचितों की मदद का काम करता है. 2019 में इसने गोवा सिटीजेंस फोरम, राजस्थान के कम्युनिटी सोशल एंड एजुकेशन सोसायटी से हाथ मिलाया. इसी तरह इसका टाईअप पश्चिम बंगाल में नागरिक अधिकार सुरक्षा समिति, मणिपुर में लीलांग सोशल फोरम और आंध्र प्रदेश में एसोसिएशन ऑफ सोशल जस्टिस से हुआ.
कब और कैसे वजूद में आया पीएफआई?
बेंगलुरु में 19 दिसंबर 2006 को हुई एक बैठक में तीन अलग-अलग संगठनों के आपसी विलय से ये संगठन वजूद में आया. इनमें केरल में सक्रिय द नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट, तमिलनाडु में सक्रिय मनीता नीति पसरई और कर्नाटक में सक्रिय कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी संगठन शामिल थे. इसमें द नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट यानि एनडीएफ को केरल में सीपीएम और बीजेपी के विरोध के कारण बिस्तर समेटना पड़ रहा था. उस पर केरल में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के आरोप थे. तीनों संगठनों ने आपस, विलय के बाद नए संगठन का नाम रखा पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया. इस विलय से इस संगठन को बहु-राज्य आयाम हासिल हो गया था. पीएफआई खुद को एक नव-सामाजिक आंदोलन के रूप में वर्णित करता है. ये संगठन दावा करते हैं कि वो लोगों को न्याय, स्वतंत्रता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सशक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध है.
अपने गठन के बाद पीएफआई ने समाज के अलग-अलग हिस्सों और देश भर में अपने पैर पसारने के लिए अलग-अलग उपसंगठन बनाए. पीएफआई से से जुडे लोगों को लगा कि मुसलमानों को राजनीतिक लड़ाई लडऩे के लिए एक पार्टी की ज़रूरत है. लिहाज़ा पीएफआई ने इसने 2009 में एक सियासी पार्टी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) की स्थापना भी की. जिसका उद्देश्य मुस्लिमों, दलितों और दबे कुचले लोगों की मदद था. अबू बकर को इस सियासी पार्टी का प्रमुख बनाया गया. पीएफआई ने स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स में पैठ बनानी शुरू की. इसके लिए उसने स्कूलों और कॉलेजों में द कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया संगठन भी इसी साल खड़ा किया. महिलाओं को जोडऩे के लसिए राष्ट्रीय महिला मोर्चा का गठन किया. इस तरह समाज के विभिन्न वर्गों को पूरा करने के लिए संगठन के पास विभिन्न विंग हैं.
मुस्लिम आरक्षण की मांग से हुई शुरुआत
बहुत कम लोग जानते हैं कि पीएफआई के गठन की शुरुआत 2004 में केंद्र में यूपीए सरकार बनने से पहले मुसलमानों को केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर हुई थी. सबसे पहले 25 और 26 जनवरी 2004 को बैंगलोर में सभी दक्षिण भारतीय राज्यों के सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की एक बैठक हुई. इसमें दक्षिण भारत परिषद नामक एक आम मंच का गठन किया गया था. बाद में इसने सामुदायिक सशक्तिकरण, विशेष रूप से शिक्षा और रोजगार में आरक्षण से संबंधित विभिन्न मुद्दों को उठाया. भारत में मुस्लिम संस्थाओं के परिसंघ के सहयोग से, परिषद ने 26 और 27 नवंबर 2005 को हैदराबाद में मुस्लिम आरक्षण पर दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया. जब केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में आरक्षण शुरू करने का फैसला किया, तो परिषद ने आरक्षण पर तीन क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित किए. पहला 4 अगस्त को कालीकट में, दूसरा 5 अगस्त को बैंगलोर में और तीसरा 17 अगस्त 2006 को चेन्नई में. एक राष्ट्रीय सम्मेलन 29 अगस्त 2006 को अखिल भारतीय मिल्ली कौंसिल के साथ नई दिल्ली में संयुक्त रूप से आयोजित किया गया था.
मौजूदा व्यवस्था पर क्या सोचता है पीएफआई?
पीएफआई देश के मौजूदा सामाजिक-आर्थिक मॉडल को पूरी तरह नाकाम मानता है. इसके विजऩ स्टेटमेंट मे कहा गया है,विकास के मौजूदा सामाजिक-आर्थिक मॉडल देश के लोगों की गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने में विफल रहे हैं. आजादी के बाद से, सत्ताधारी प्रतिष्ठान ने बड़े व्यापारिक घरानों और शहरी और ग्रामीण अभिजात वर्ग को सशक्त बनाया है, क्योंकि इसने नीचे के लोगों की बुनियादी जरूरतों की अनदेखी की है. परंपरागत रूप से प्रभावशाली सामाजिक समूहों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को हाईजैक कर लिया है. वे नव-औपनिवेशिक, फासीवादी और नस्लवादी ताकतों के साथ मिलकर काम करते हैं.
दलितों, आदिवासियों, धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों और महिलाओं को उनके सांस्कृतिक और सामाजिक स्थान से वंचित कर दिया जाता है, जिससे भारत दुनिया के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक बन जाता है. शोषण और अभाव के खिलाफ प्रतिरोध अब ज्यादातर स्थानीय है और राष्ट्रीय स्तर पर संसाधनों का कोई समन्वय और पूलिंग नहीं है.
पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया वंचितों और दलितों और बड़े पैमाने पर राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सशक्तिकरण की उपलब्धि के लिए ऐसे प्रयासों के समन्वय और प्रबंधन की दिशा में एक कदम है. यह एक समतामूलक समाज की स्थापना का प्रयास करेगा जिसमें सभी को स्वतंत्रता, न्याय और सुरक्षा प्राप्त हो.
क्या मकसद है पीएफआई का?
पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ने अपनी आधारिक वेबसाइट पर अपने उद्देश्यों को बारे में विस्तार से जानकारी दी है. 17 सूत्री उद्देश्यों की फेहरिस्त में वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक विकास का मॉडल तैयार करना प्रमुख है. पीएफआई के दस प्रमुख उद्देश्य ये हैं,
1. राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था, धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था और कानून के शासन को बनाए रखना.
2. देश में शांति, प्रगति और समृद्धि के लिए काम करना और विभिन्न समुदायों के बीच सद्भावना और भाईचारे को मजबूत करना.
3. सभी के लिए स्वतंत्रता, न्याय और सुरक्षा पर आधारित सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने में मदद करना.
4. एक वैकल्पिक गैर-विनाशकारी सामाजिक आर्थिक विकास मॉडल के लिए प्रयास करना जो पर्यावरण के अनुकूल और टिकाऊ हो.
5. भारत के विभिन्न भागों में कमजोर वर्गों के कल्याण और प्रगति के लिए कार्य करना.
6. हाशिए के वर्गों की गरिमा, जीवन और संपत्तियों की रक्षा के लिए उपयुक्त साधन अपनाना और उनके सशक्तिकरण के लिए काम करना.
7. आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक पहचान की रक्षा के लिए प्रयास करना.
8. जातिवाद, सांप्रदायिकता और फासीवाद के खतरों की पहचान और जांच करना.
9. अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास के लिए योजनाएँ बनाना। वंचित और शोषित वर्गों को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करना.
10. मानव अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ लोगों को लामबंद करना और भारत के लोगों के नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करना.
क्यों विवादों में है पीएफआई?
सीएए-एनआरसी के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में धरना हो या हनुमान जयंती के अवसर पर जहांगीरपुरी में हिंसा या फिर कर्नाटक में हिजाब पर विवाद, पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया चर्चा में रहा है. इसके अलावा बीजेपी नेता नूपुर शर्मा के पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ दिए गए आपत्तिजनक बयान के बाद यूपी के कानपुर में भडक़ी हिंसा के पीछे भी पीएफआई का ही हाथ बताया गया. इससे पहले 2020 में दिल्ली मे हुए दंगों में भी इसी का हाथ बताया गया. सच्चाई ये है कि अपने गठन के बाद से ही ये संगठन विवादों में रहा है. केरल और कर्नाटक में अक्सर पीएफआई और संघ परिवार के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें होती रही हैं. कई राज्यों की पुलिस पीएफआई कार्यकर्ताओं के पास से घातक हथियार, बम, बारूद, तलवारें बरामद होने और उनके तालिबान और अल-कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ संबंध होने के सुबूत मिलने का दावा करती रही हैं.
क्या सिमी का ही नया वर्जन है पीएफआई?
अक्सर कहा जाता है कि पीएफआई दो दशकों के प्रतिबंधित सिमी का ही नया वर्जन है. केरल सरकार ने 2012 में हाई कोर्ट में दिए अपने हलफनामे में कहा था कि पीएफआई प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के एक अन्य रूप में पुनरुत्थान के अलावा कुछ नहीं है. दरअसल जुलाई 2012 में कन्नूर में एक छात्र सचिन गोपाल और चेंगन्नूर में बीजेपी का छात्र संगठन एबीवीपी के नेता विशाल पर चाकू से हमला हुआ. इस हमले का आरोप पीएफआई पर लगा. बाद में गोपाल और विशाल दोनों की ही मौत हो गई थी. 2010 में कनेक्शन के आरोप भी लगे. उसकी वजह भी थी. दरअसल, उस समय पीएफआई के चेयरमैन अब्दुल रहमान थे, जो सिमी के सचिव रहे थे. उस समय पीएफआई के ज्यादातर नेता कभी सिमी के सदस्य रहे थे. हालांकि, पीएफआई अक्सर सिमी से कनेक्शन के आरोपों को खारिज करता रहा है. लेकिन ये भी सच्चाई है कि कभी सिमी मे रहे लोग पीएफआई के ऊंचे पदों पर रहे हैं.
सीए-एनआरसी विरोधी आंदोलनों के बाद से पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने की मांग जोर शोर से उठ रही है. बीजेपी शासित कई राज्य ये मांग कर रहे है. झारखंड में इसको बैन किया गया है. जहां राज्य सरकार ने कहा कि पीएफआई पर देश विरोधी गतिविधियों और आईएस जैसे कुख्यात अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन से इसके रिश्ते के चलते इस पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है. ये बैन 2019 से ही लगा हुआ है. सवाल ये है कि झारखंड की तरह बाकी राज्य सरकारों ने इस पर अभी तक प्रतिबंध क्यो नहीं लगाया. हालही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने मुस्लिम संगठनों का एक सम्मेलन बुलाया था. इसमें पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पारित हुआ था. हालांकि बाद में कुछ संगठन इससे मुकर गए थे. ऐसा लगता है कि अब इसके खिलाफ एनआईए की कार्रवाई प्रतिबंध की पुख्ता भूमिका तैयार कर रही है.