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लखनऊ,(माॅडर्न ब्यूरोक्रेसी न्यूज)ः एक दिन में 24 घंटे होते हैं ईश्वर ने समय के अलावा सभी को कुछ न कुछ अलग दिया है परंतु समय देने में कोई पक्षपात नहीं किया है ऐसा आप लोगों को लग सकता है, परंतु समय सभी को एक समान ही दिया है इसमें एक सेकंड का भी अंतर नहीं चाहे वह इंसान हो या जानवर ऐसा बुरा मानने की कोई बात नहीं कि आपकी तुलना जानवर से की जा रही है जानवर और इंसान में बहुत अंतर होता है खासकर जबकि रूप से इंसान को जानवर बनने में कुछ भी समय नहीं लगता परंतु ठीक उसका उल्टा जानवर से मानव रूपी काया फिर इंसान बनने में युगो युगो का समय लग सकता है या कह सकते हैं अंतरात्मा को जागृत करके, हृदय परिवर्तन करके बदला जा सकता है , यह सत्य है कि आज भी मानव का उद्विकास उपरांत भी एक जिस्म के अंदर जानवर और इंसान या कह सकते हैं शैतान और भगवान एक साथ ही रहते हैं फर्क इतना है कि आप किसके नियंत्रण में है वही आपकी सामाजिक पहचान बन जाती है आज भी मानव धन लोभ , वासना एवं व्यभिचार को संगति में से घिरा रहता है जब उसे अपने अंतरात्मा की आवाज सुनाई पड़ने लगती है या सकारात्मक ऊर्जा प्रबल हो जाती है उसका मन व्याकुल होकर दम घुटने लगता है तो वह एक झटके से इससे मुक्त होकर इंसान रूपी सामाजिक जीवन में रहने का प्रयास करने लगता है ऐसे मान लीजिये ऐसे नाव आप सवार है जिसमे छेद है और आपको उस छेद को भी बंद करना है भरते हुए पानी को निकालते भी रहना है और नाव के सहारे अपने को किनारे भी लगाना है सबसे ज्यादा आजकल फैशन या ट्रेंड हैं कि आप अंदर कितने भी बुरे हो मतलबी हो , पर ऊपर से सकारात्मक चेहरे वाला मुखौटा पहने रहना है जहां पर 90प्रतिशत दिखावटी इंसानियत होती है, जब कहीं आस पड़ोस कार्यालय या सार्वजनिक स्थल पर किसी व्यक्ति द्वारा गलत हो जाने पर पर हम सभी उसको ये संबोधित करते हुए कहते हैं यार जानवर हो। सही गलत निर्णय करने की क्षमता ही इंसान और जानवर में फर्क करना सीखाता है यही निर्णय लेने की क्षमता ही आपकी सामाजिक पहचान है और यही चरित्र आपके घर के परिवेश , सामाजिक जुड़ाव को दर्शाता है इसमें अमीरी गरीबी से कोई मतलब नहीं है।

आपने देखा होगा जब आप ग्रामीण परिवेश या आर्थिक वंचित परिवार से मिलते होंगे तो वह लोग आपको कितने प्रेम से सामाजिक जुड़ाव से बात करते हैं और इसका ठीक उल्टा आर्थिक संपन्न परिवार मे नहीं होता या कह सकते है सम्मान कहीं ना कहीं तुलनात्मक ही कम ही होता है ऐसा कई बार महसूस तो किया होगा , मन ही मन मे सोचते है गरीब का काम ही सादर सत्कार करना है लेकिन रोड पर चलते वक्त किसी छोटी बात पर किसी साइकिल या रिक्शा चलने वाले से बहस हो जाए तो आप अपना आपा खोकर गाली गलौज जितना भी दिल में भड़ास हो उस पर गुस्सा निकाल कह ही देते है कि जानवर हो क्या , लेकिन कहीं ना कहीं वहाँ पर उपस्थिस्त सभी लोग आपको ही देख रहे होते है आपको अंदर अंदर पता तो लग ही जाता है कि जानवर कौन है उससे ज्यादा जब आप अपने परिवार में बच्चों के साथ होते हैं मन शांत हो जाने पर बहस के पल को याद करते हुए ईश्वर को जरूर बोलते हैं शायद मुझसे गलती हो गई अपने अच्छाई के मुखौटे को सभाल नहीं पाया पता लग ही गया जानवर कौन है।
लेखक- धनंजय प्रताप
चिकित्सालय प्रबंधक, लोकबंधु राज नारायण संयुक्त चिकित्सालय लखनऊ।
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